उत्तराखंड का वीर सपूत शहीद केसरी चंद
इसी प्रबल भावना ने उन्हें 10 अप्रैल 1941 को रॉयल आर्मी सर्विस कॉर्प्स में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, और जल्द ही, 29 अक्टूबर 1941 को केसरी चंद को मलाया के युद्ध के मैदान में तैनात कर दिया गया। दुर्भाग्यवश, इस दौरान उन्हें जापानी सेना ने बंदी बना लिया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जोशीले नारे "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा" से प्रेरित होकर, केसरी चंद ने आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल होने में जरा भी संकोच नहीं किया। अपने अदम्य साहस और निष्ठा के कारण उन्हें कई जोखिम भरे कार्य सौंपे गए। ऐसे ही एक मिशन के दौरान, इम्फाल में एक महत्वपूर्ण पुल को उड़ाने के प्रयास में, उन्हें ब्रिटिश सेना ने पकड़ लिया और दिल्ली की जिला जेल में कैद कर दिया गया।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में, युवा केसरी चंद को मौत की सजा सुनाई गई। 3 मई 1945 को, मात्र 24 वर्ष की आयु में, उत्तराखंड के इस वीर सेनानी को फांसी दे दी गई। उनकी शहादत की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए, हर साल 3 मई को रामताल गार्डन चकराता और नागथात के मध्य एक भव्य मेले का आयोजन होता है। यह दुखद है कि भले ही राज्य सरकार ने उनकी शहादत को भुला दिया हो, लेकिन जौनसार के लोगों के दिलों में वे आज भी जीवित हैं।
शहीद केसरी चंद के अद्वितीय बलिदान के सम्मान में, चकराता स्थित रामताल गार्डन में प्रतिवर्ष 3 मई को 'वीर केसरी चंद मेला' आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर, अपने नायक को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए लाखों लोग एकत्रित होते हैं। जौनसार के लोक कलाकारों ने भी केसरी चंद की वीरता और बलिदान को अमर करते हुए कई भावपूर्ण गीतों की रचना की है, जो उनकी स्मृति को आज भी जीवंत रखे हुए हैं।
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